|
५ नवंबर, १९५८
''आध्यात्मिक सत्य आत्माका सत्य है, बुद्धिका सत्य या गणित- का प्रमेय या तर्ककी सिद्धांत-सूत्र नहीं । वह अनंतकास एक सत्य है, अनंत विभिन्नतामेंसे एक । वह अनंत विभिन्नतावाले पक्षों और गठनोंको धारण कर सकता है । आध्यात्मिक विकास- के लिये यह जरूरी है कि एक ही 'सत्य'की ओर जानेवाले विभिन्न मार्ग हों, विभिन्न प्रयत्न हों और उसके ग्रहण किये हुए रूप भी विभिन्न हों । यह विभिन्नता इस बातका चिह्न है कि अंतरात्मा एक सजीव यथार्थताको प्राप्त कर रही है । पदार्थोंके ऐसे काल्पनिक रूप या वस्तुओंकी ऐसी रचना नहीं जो मृत पथरीले सूत्रोंमें परायी जा सकती है । सत्यके बारेमें यह कठोर तार्किक और बौद्धिक धारणा कि यह कोई ऐसा अकेला बिचार होना चाहिये जिसे सबको स्वीकार करना पड़ेगा, एक ऐसा विचार या विचार-पद्धति जो और सब विचारों या पद्धतियोंको हटा दे, एक एकाकी सीमित तथ्य या अकेला त्यों- का सूत्र जिसे सभीको मान्यता देनी चाहिये -- यह एक ऐसी धारणा है जो भौतिक क्षेत्रके सीमित सत्यको प्राण, मन और आत्माके बहुत अधिक जटिल ओर नमनशील क्षेत्रमें अनुचित रूपसे स्थानांतरित करता है... आध्यात्मिक मनुष्यके विकासमें आवश्यक रूपसे बहुत-सी
३८७ वपहमिकाएं हैं और हर भूमिकामें सत्ता, चेतना, जीवन, प्रकृति, विचार और चरित्रमें व्यक्तिगत रचनाओंकी बहुत अधिक विभिन्नता होती है । यंत्र-रूप मनकी प्रकृति और जीवनके साथ उसके व्यवहार करनेकी आवश्यकता ही साधकके विकासकी भूमिका और उसके व्यक्तित्वके अनुसार अनंत विभिन्नता पैदा कर देती है । इसके अतिरिक्त यह जरूरी नहीं है कि शुद्ध आध्यात्मिक आत्मोपलब्धिकी और आत्मािव्यक्तिके क्षेत्र ही एक जैसा, एक- रस बना रहे । यहां भी मौलिक एकताके साथ-ही-साथ बहुत सही विविधता हो सकती है । परमात्मा एक है पर उसकी आत्माएं बहु हैं । जीवात्मा ने प्रकृतिकी जैसी रचना की है, उसीके अनुसार उसकी आध्यात्मिक स्वाभिथ्यक्ति होगी । एकतामें विविधता अभिव्यक्तिका नियम है । अतिमानसिक एकीकरण और संघटन इन विविधताओंमें सामंजस्य लायेगा, परंतु इनका नाश प्रकृतिमें निवास करनेवाली 'आत्मा'का अभि- प्राय नहीं है ।''
('लाइफ डिवाइन', पृ ०८८६-८८)
व्यक्तिगत विकासकी दृष्टिसे औ र उन लोगोंके लिये जो अभी पथके शुरूमें ही हैं, उस बातके बारेमें चुप रहना जिसे वे नहीं समझते, उन चीजोंमेंसे एक है जो प्रगतिमें सबसे अधिक सहायक होती हैं । चुप कैसे रहा जाय यह जानना, केवल बाहरी तौरपर शब्द न बोलना ही नहीं, बल्कि यह जानना कि भीतर कैसे नीरव रहा जाय, यह जानना कि मन, जैसा कि वह हमेशा करता है, अपनी स्वभावगत ढिठाईके साथ अपने अज्ञानके दावेके साथ घोषणा न करे, समझनेमें असमर्थ यंत्रद्वारा समझनेकी कोशिश न करे, अपनी दुर्बलताओंके पहचानने और बस सहज-भावसे चुपचाप स्वयंको खोले, प्रकाशकों ग्रहण करनेके लिये मुहूर्त्तको प्रतीक्षा करे क्योंकि केवल 'प्रकाश', सच्चा प्रकाश ही उसे समझ प्रदान कर सकता है । जो कुछ इसने सीखा है वही सब कुछ नहीं है, जो कुछ निरीक्षण किया है वही सब कुछ नहीं है, जो कुछ जीवनका तथाकथित अनुभव लिया है वही सब कुछ नहीं है, वह तो' कुछ और है बो इस सबको पूरी तरह अतिक्रम कर जाता है । इससे पहले कि यह कुछ और -- जो 'कृपा' की अभिव्यंजना है -- उसमें अभिव्यक्त हो, यदि मन बड़ी शांतिसे, बड़ी विनखतासे अचंचल बना रहे, समझनेकी, आर सबसे बढ़कर मूल्यांकन करनेकी कोशिश न करे, तो चीज़ें अधिक तेजीसे आगे बेढंगी ।
३८८ ये सारे शब्द, सारे विचार सिरमें जो शोर मचाते है वह बहरा बना देनेवाला होता है, वह तुम्हें सत्यको, यदि वह अभिव्यक्त होना चाहे ता', सुननेसे रोक देता है ।
अचंचल और नीरव रहना सीखना... । जब तुम्हारे सामने सुलझानेके लिये कोई समस्या हों ता सब संभावनाओं, सब परिणामों, करणीय या अकरणीय सब संभव चीजोंपर दिमाग लड़ानेकी जगह यदि तुम सद्भावनाकी अभीप्सा लिये अचंचल बने रह सको, यदि संभव हों तो सद्भावनाकी आवश्यकता लिये, तो बहुत जल्दी समाधान निकल आता है । और क्योंकि तुम नीरव होते हों, इसलिये तुम उसे सुन पाते हों ।
जब तुम किसी कठिनाईमें फंस जाओ तो इस तरीकेको आजमाओ : विक्षुब्ध होने, बम विचारोंको उलटने-पलटने, ज़ोरशोर समाधान ढेन, चिता करने, चिढ़ने, अपने सिरके अंदर इधर-उधर भागते रहनेके बजाय-- मेरा मतलब बाह्य रूपसे नही है, इतनी सामान्य बुद्धि तो तुममें होगी ही कि बाह्य रूपमें दौड-भाग न करो! वरन्, भीतर, अपने सिरमें -- अचंचल बने रहो । और अपने स्वभावके अनुसार, उत्कटताके साथ या शांतिके साथ, तीव्रताके साथ या विस्तारके साथ या इन सबको मिलाकर, प्रकाशकी अभ्यर्थना करो और उसके आगमनकी प्रतीक्षा करो । इस तरह पथ काफी छोटा हो जायगा ।
१२ नवम्बर, १९५८
''यदि आध्यात्मिक मनुष्यके विकासमें प्रकृतिका एकमात्र उद्देश्य यही हो कि उसे परम सद्वस्तु (परमार्थ) की ओर जाग्रत कर दे और उसे अपने-आपसे, अर्थात्, उसने 'शाश्वत'की 'शक्ति' होते हुए 'अविद्या' का जो मुखौटा पहने रखा है उससे, यहांसे किसी उच्चतर भूमिकामें ले जाकर मुक्त कराये, यदि विकासमें यह कदम ही अंतिम और बाहर जानेका मार्ग है, तो सार रूपमें उसका काम पूरा हो चुका है और अब कुछ भी करनेके लिये बाकी नहीं है । रास्ते बन चुके है, उनपर चलनेकी क्षमता विकसित हो चुकी है, सृष्टिका लक्ष्य या अंतिम शिखर स्पष्ट है । अब हर अंतरात्माके लिये यही काम बचा ह कि बह
३८९ व्यक्तिगत रूपसे ठीक भूमिका और ठीक घुमावपर पहुंचे, आध्यात्मिक रास्तोंमें प्रवेश करे ओर अपने ही चुने हुए रास्तेसे इस घटिया अस्तित्वमें बाहर निकल जाय । लेकिन हमने यह माना है कि इसके आगे कुछ और भी आशय है, -- केवल 'आत्मा'का प्रकट होना ही नहीं, प्रकृतिका आमूल और सर्वांगीण रूपांतर । प्रकृतिमें आत्माके सशरीर जीवनकी सच्ची अभिव्यक्तिको चरितार्थ करनेका संकल्प है, उसने जिसे शुरू किया है उसे 'अज्ञान'से 'ज्ञान'की ओर ले जाकर पूरा करनेका, अपने मुखौटेको हटानेका, अपने-आपको ज्योतिर्मय 'चिच्छक्ति'के रूपमें प्रकट करनेका एक संकल्प है जो अपने अंदर शाश्वत 'सत्ता' और उस सत्ताके सार्वभौम 'आनंद'को धारण किये हुए है । तब यह स्पष्ट हो जाता है कि अभीतक कुछ बाकी है जिसे पूरा नहीं किया गया है, अब भी जो बहुत कुछ करना बाकी है -- भूरि अस्पष्ट कर्तव्य -- वह आंखोंके सामने स्पष्ट हो जाता है । एक ऐसा शिखर बाकी है जहांतक पहुंचना बाकी है, एक ऐसा विस्तार है जिसमें अंतर्दर्शन करनेवाली आंखोंके फैलाना है, जिसपर संकल्पके पंखोंको पहुंचाना है, भौतिक विश्वमें 'आत्मा'- का आत्म-पुष्टीकरण बाकी है । क्रमविकासका 'शक्ति'ने अभीतक जो किया है बह यहीं है कि कुछ व्यक्तियोंको अपनी अंतरात्मा- के बारेमें ज्ञान दे दिया है, उन्हें अपनी आत्माकी चेतना दी ह, यह ज्ञान दिया है कि वे शाश्वत सत् है, प्रकृतिके बाहरी रूपोंमें छिपे 'परम देव' या 'परम सद्वस्तुके साथ उनका संपर्क करवा दिया है । प्रकृतिका एक विशेष परिवर्तन इस प्रकाश- को तैयार करता है । उसके साथ या उसके पीछे-पीछे चलता है, परंतु यह बह पूर्ण और मौलिक परिवर्तन नहीं है जो पार्थिव प्रकृतिके क्षेत्रमें निश्चित और दृढ़ नूतन तत्त्वको, नवीन सृष्टि- को स्थापित करे और सत्ताकी एक चिरस्थायी नयी व्यवस्था लाये । आध्यात्मिक प्राणी तो विकसित हुआ है, परंतु वह अति- मानसिक सत्ता विकसित नहीं हुई जो आगे चलकर प्रकृतिका नेता होगी ।',
( 'लाइफ डिवाइन', पृ० ८८९-९०) मां, अपने विकासकी ठीक अवस्था और मोड़का कैसे पता लग सकता है?
३९० कैसे पता लग सकता है!... तुम्हें इसकी खोज करनी होगी । आग्रह- पूर्वक इसे चाहना होगा । यही तुम्हारे लिये एकमात्र महत्त्वपूर्ण बात होनी चाहिये ।
( मौन)
जब कोई अपनी आत्माको खोजने, उसके साथ युक्त हों जानें और उसे अपने जीवनको शासित करनेकी अनुमति देनेका आवश्यक आंतरिक प्रयास करता है तो इस खोजका एक तरहका अनोखा सम्मोहन होता है जिसके कारण सबसे पहली वृत्ति यह होती है कि वह अपने-आपसे कहें : ''जो मैं चाहता हू वह अब मेरे पास है, मुझे अनंत आनंद मिल गयी। है! '' ओर बस, वह किसी अन्य चीजकी ओर ध्यान नहीं देता ।
वस्तुतः, ऐसा लगभग उन सब लोगोंके साथ हुआ है जिन्होंने यह खोज की है, उनमेंसे कुछ ऐसे भी है जिन्होंने इस अभ्नुाऋइतके'। सिद्धिका सिद्धांत बना डाला और कहा : ''जब तुम इतना कर चुके, अब और कुछ करना बाकी नही रहा; तुम लक्ष्यतक और पथके अंततक पहुंच गये हों ।''
निश्चय ही, और आगे जानेके लिये बड़े साहसकी जरूरत है, यह आत्मा जो खोजी जाय वह निर्भीक हूतात्मा होनी चाहिये जो दूसरोंका दुःख देखकर अपनको इस विचारसे तसल्ली देती हुई अपने आंतरिक हर्षसे जरा भी संतुष्ट नही होती कि देर-सवेर सब उसी अवस्थातक पहुंचेंगे, और जो प्रयत्न मैंने किया हैं उसे दूसरे भी करें तो उनके लिये अच्छा है या, ज्यादा-सें-ज्यादा, इस विचारसे कि आंतरिक प्रज्ञाकी इस अवस्थामें रहते हुए ''महान् सद्भावना'' और ''गहरी अनुकल्प'' द्वारा वह लोगोंको वहांतक पहुँचनेमें मदद कर सकती है, और जब सब उसे प्राप्त कर लेंगे तो वह दुनियाका अंत होगा और यह उन लोंगोंके लिये अच्छा होगा जो दुःख भोगना नही चाहते!
लेकिन... एक ''लेकिन'' है । क्या तुम्हें विश्वास है कि परम प्रभुका स्वयंको अभिव्यक्त करते समय यही उद्देश्य और यही आशय था?
( मौन)
अगर यही परिणाम हो तो सारी सृष्टि, यह सारी वैश्व अभिव्यक्ति अधिक-से-अधिक एक भद्दा मजाक मालूम होती है । यदि इससे बाहर हो है तो फिर इसे शुरू ही क्यों किया जाय! यदि यह केवल तुम्हें
३९१ यह दिखानेके लिये है कि इसमेंसे कैसे बाहर निकला जा सकता है तो इतना संघर्ष करनेसे, इतना दुःख भोगनेसे क्या लाभ, ऐसी सृष्टि बनानेका क्या लाभ जो कम-से-कम अपने बाह्य रूपमें इतनी दुखांत और नाटकीय हो -- तब तो आरंभ न करना ही कहीं अधिक अच्छा होता ।
लेकिन यदि तुम चीजोंकी एकदम गहराईतक जाओ, केवल अहंभावसे ही विमुक्त नही, बल्कि अहंसे भी विमुक्त होकर अपने-आपको पूरी तरह, बिना कुछ बचाये, इतनी संपूर्णता और अनासक्तिके साथ समर्पित कर दो कि तुम परम प्रभुकी योजनाको समझनेके योग्य बन जाओ तो तुम जान जाओगे कि यह एक भद्दा मजाक नहीं है, आरंभिक बिंदुतक वापिस आनेके लिये टेढा-मेढा, थोड़ा घिसा-पिटा रास्ता नहीं है । इसके विपरीत, यह तो सारी सृष्टिको जीनेका आनंद, जीनेका सौंदर्य, जीनेकी महिमा, एक उदात्त जीवनकी भव्यता और उस आनंद, सौंदर्य और महिमाकी सतत प्रगतिशील वृद्धि सीखनेके लिये है । अतः हर चीजका अर्थ है, और तव संघर्ष करके, दुःख भोगकर तुम्हें पछतावा नहीं होता तुममें केवल दिव्य लक्ष्यको प्राप्त करनेका उत्साह होता है और उस प्राप्तिके लिये लक्ष्य ओर विजयकी निश्चितिके साथ तुम सिरके बल कूद पड़ते हो ।
लेकिन यह जान सकनेके लिये अहंवादी होना छोड़ना पड़ेगा, परम उत्स- सै कटकट, अपनेमें सिमट-सिकुड़कर एक अलग व्यक्ति होना छोड़ना होगा । सबसे बढ़कर जरूरी है अपने अहंको उतार फेंकना । और तब तुम अपने सच्चे लक्ष्यको पहचान सकोगे -- और बस, यही एक तरीका है! अपने अहंको उतार फेंकना, एक अनुपयोगी परिधानकी तरह गिर जानें देना ।
फलको देखते हुए इसके लिये प्रयत्न करना सार्थक है । और फिर पथपर तुम अकेले नहीं हो । यदि तुममें भरोसा हों तो तुम्हें सहायता मिलती है ।
यदि एक निमिषके लिये भी 'कृपा' के साथ तुम्हारा संपर्क हुआ है, उस अलौकिक 'कृपा' के साथ जो तुम्हें बढ़ाये लिये जाती है, पथपर दौड़ाये लिये जाती है, तुम्हें यह मी भुला देती है कि तुम्हें जल्दी करनी है, यदि उस 'कृपा' के साथ तुम्हारा निमिष मात्रिके लिये भी संपर्क हुआ है तो तुम्हें भूलना जानेका प्रयास करना चाहिये । ओर, जिसके जीवनमें गुत्थिया नही है, ऐसे शिशुकी निष्कपटता और सरलताके साथ, अपने-आपको 'कृपा' के हाथमें सौंप दो और उसे कार्य करने दो ।
आवश्यकता है इस बातकी कि जो कुछ प्रतिरोध करे उसकी मत सुनो; जो खंडन करे उसका विश्वास न करो - एक भरोसा रखो, सच्चा भरोसा,
एक विश्वास द्वारा तुम अपने-आपको पूरी तरह बिना हिसाबकिताबके, बिना सौदेबाजीके दे दो । भरोसा रखो! अंततक भरोसा रखो, कहो : ''यह करो, मेरे लिये यह कर दो, मैं तुम्हारे ऊपर छोड़ता हू ।'' यही है सर्वश्रेष्ठ तरीका ।
३९२
|